Today and tomorrow : खुशी आती कहां से है, जाती कहां से हैं
खुशी आती कहां से है, जाती कहां हैं
खुशी आती कहां से है और जाती कहां हैं। इस बारे में अनेक मनोवैज्ञानिक व समाजशास्त्री ने लंबा शोध किया है। इस विषय पर अभी तक सभी वैज्ञानिकों का एक मत नहीं है। मनोवैज्ञानिक काॅलिंग पाॅवेल का कहना है, खुशियों का संबंध हमारी भावनाओं से भी है। हमारी भावनाएं हर पल बदलती रहती है। उसी के अनुसार खुशी का स्तर भी घटता बढ़ता रहता है। कोई भी व्यक्ति पूरे सप्ताह में समान रूप से खुशी नहीं पा सकता है। किसी दिन खुशी का स्तर 20 प्रतिशत या किसी दिन 80 प्रतिशत खुश हो सकते है।
इंस्टीट्यूट आॅफ आॅप्टिम न्युट्रीशन यू. के. के प्रमुख डाॅ. पैट्रिक हालफोर्ट का कहना है बेहतर मूड का सीधा संबंध मूड से हंै। अफसोस की बात यह है कि अधिकतर लोगों ने अपने आपको निराशा में बांध कर रखा है। इससे ज्यादातर लोगों ने निराशा में ही जीने का अंदाज बना लिया है।
जब कभी किसी बात को लेकर हमारा मूड आॅफ हो जाता है। उस वक्त मस्तिष्क के न्यूरोट्रांसमीटर में जबर्दस्त परिवर्तन होता है। खुशी का एहसास कराने वाला न्यूरोट्रांसमीटर सेरोटोनिन के स्तर में गिरावट आ जाती है। डोपामाइन, नाॅरपाइनफ्रिन और एड्रेनैफिन के रिसाव में कमी आ जाती है। प्राकृतिक तौर पर मूड बेहतर बनाने वाले केमिकल एसएएमई का उत्पादन गिर जाता है। ब्लड में ग्लूकोज का स्तर कम हो जाता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, न्यूरो ट्रांसमीटर डोपामाइन दिमाग के मेजोलिंबिक पाथवे और न्यूक्लियस एक्यूबेंस के हिस्से में काम करता है। यह इंसान में खुशी के उत्पादन का कारण होते है। जब मस्तिष्क में डोपामाइन का रिसाव तेजी से होता है। सारा शरीर एनर्जी से ओत-पोत हो जाता है। इसमें न केवल खुशियां बढ़ती है। बल्कि सोचने, समझने और याद रखने की क्षमता बढ़ती है। यह सेक्स लाइफ को भी खुशगवार बनाती है।
हमारा शरीर एमिनो-एसिड डीएल-फनिलालैनिन के जरिए डोपामाइन के निर्माण की शुरूआत करता है। यह एक-दूसरे एमिनो एसिड एल-टाइरोसिन में बदलता है, बाद में एल-डोपा में तबदील होता है और अंत में डोपामाइन बनता है। इन सभी क्रियाओं को अंजाम देने के लिए शरीर को फोलिक एसिड, मैग्निशियम, जिंक और काॅपर की खास जरूरत होती है।
डोपामाइन बाद में न्यूरो केमिकल नाॅरपाइनफ्रिन और एटेªनैलिन में बदलता है। यह उत्तेजक न्यूरोकेमिकल सजगता और सतर्कता का काम करता है। विचार को पाॅजिटिव बनाता है। सोचने समझने की शक्ति को बढ़ाता है। वैज्ञानिकों का कहना है यदि डोपामाइन के स्तर को सही-सही नापा जाएं तो व्यक्ति के खुश रहने के स्तर को भी नापा जा सकता है।
शरीर के प्रत्येक कोशिकाओं में मेथिलेशन नामक एक क्रिया होती है। इस क्रिया में मेथिल ग्रूप का एक परमाणु दुसरे में ट्रांसफर होते है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मेथिलेशन के क्रिया लोगों में आनुवंशिकता पर आधारित होते है। शरीर में विटामिन ‘बी’ की कमी से मेथिलेशन की क्रिया धीमी हो जाती है।
मिथेलेशन की क्रिया सही ढ़ंग से हो रहा है या नहीं, इसे जानने के लिए शरीर में होमोसिस्टीन की क्रिया होती है। होमोसिस्टीन रक्त में पाए जाने वाले एमिनों एसिड जो एसएमई के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सेरोटोनिन खुशी बढ़ाने वाला एक खास तत्व है। हमारी लाइफ स्टाइल गड़बढ़ होने सेरोटोनिन के उत्पादन में कमी आ रही है। सेरोटोनिन और डोपामाइन जैसे ट्रांसमीटर्स के उत्पाद को बढ़ावा देता है। मूड को खुश रखने वाले हारमोन सेरोटोनिन के निर्माण में सूर्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जो लोग धूप में कम निकलते हैं या बिलकुल भी नहीं निकलते है। वे काफी चिड़चिड़े उदास, परेशान होते है।
मस्तिष्क में डीएमएई (डाइमेथिलामाइ - नोथैनाल), एसिटिलकोलाइन, फाॅस्टफेटिडिल्सेरिन, डीटीएच, ईपीए, पायरो ग्लुटामेट, ग्लुटामाइन जैसे तत्व मन को खुश रखने में मदद करते हैं।
वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि मस्तिष्क के फ्रंटल कोर्टेक्स के बायंे भाग में ज्यादा सक्रियता होने पर वह खुशमिजाज ओर बहिर्मुखी होता है। इस भाग का संबंध भावनाओं की अभिव्यक्ति और नियंत्रण से होता है। केमिल मेसेंजर कहे जाने वाले ये रसायन आनंद और कष्ट अनुभव करने की क्षमता को प्रभावित करते हैं। इस संबंध में इजराइल में किए गए एक शोध में पता चला है कि डोपामाइन रिसेप्टर जीन का अच्छा स्तर रखने वाले शिशुओं में 2 साल की उम्र से ही उत्सुकता और बोल्डनेस के लक्षण दिखाई देने लगते है।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन में पाया बच्चों के खुशमिजाज़ होने का असर बच्चे के माता-पिता के द्वारा पड़ता है। बच्चे के खुश मिजाज़ होने के साथ-साथ अच्छे तालमेल की क्षमता रखने वाले होते है। इसके विपरीत पारिवारिक माहौल में पढ़ने वाले बच्चे उदास, चिड़चिड़े सनकी या शंकालु किस्म के होते है। बच्चों के चेहरे पर दिखाई देने वाली उदासी और चेहरे पर झलकने वाली परेशानी खराब पारिवारीक माहौल का संकेत देता हैं
मनोचिकित्सक डाॅ. जोसेफ नोविंस्की का कहना है कि माता-पिता द्वारा बच्चे को सही तरीके से परवरिश करने का सही तरीके से बातचीत न करने, बात-बात पर मजाक उड़ाने वाले बच्चे चिंता, असुरक्षा, तनाव, शर्मोहया से ग्रस्त हो जाते हंै। वहीं यदि माता-पिता पाॅजिटिव माहौल प्यार, अपनापन, हंसी-खुशी वाला माहौल दें। उससे साथ सीधा सरल बढ़िया व्यवहार करें तो आगे चल कर बच्चे में उत्साह, उमंग खुशी, आत्मविश्वास से भरा हुआ होता है।
मनुष्य का मूड हर पल बदलता रहता है। जिनका मूड अधिक तेजी से बदलता है। मूड डिसआॅर्डर कहा जाता है। मूड डिसआॅर्डर उत्पन्न होने के कई कारण है। मूड डिसआॅर्डर से पीड़ित लोग अधिक चिंतित असुरक्षित महसूस करते है। इसलिए अनेक बातों के लिए उनका मूड बदल जाता है।
साइकियट्री रिसर्च में छपे नए अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार यदि आपके आसपास निगेटिव विचार रखने वालों की भीड़ है तो उन्हें दूर भगा दें। वर्ना वे आपको भी अपने तरह का बना देंगे। मनोचिकित्सक डाॅ. रिज़वान वाही के अनुसार, हमारे ब्रेन में मिरर न्युटान्स है जो हमें दूसरों की भावनाओं का एहसास कराने में मदद करते है।
लंदन यूनिवर्सिटी के शोधकर्Ÿााओं के अनुसार पाॅजिटिव मानसिकता को न्युरोएनडोक्राइन और इन्फ्लैमेट्ररी घट जाने की जिद्द करते है। पाॅजिटिव भावनाएं आपकी इम्यूनिरी सिस्टम को बढ़ाती है, जबकि निगेटिव भावनाएं न सिर्फ बीमार कर सकती है जबकि जिंदगी को भी कम कर सकती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ‘टाॅक्सिक इमोशंस’ (विषैले स्वभाव) होते है। जिनके अंदर निगेटिव थिंकिंग अधिक होती है। अपने टाॅक्सिन इमोशंस की वज़ह से दुख के सैलाब में डूबे रहते है। इनकी जिंदगी में दुख ही दुख होता है। सुख नाम की चीज़ ही नहीं रहती है।
आधे भरे गिलास को आधा खाली देखने वाले हमेशा निगेटिव सोचते है। घर में किसी से गलती हो जाने पर किसी गुनाह से कम नहीं मानते है। ऐसे लोगों को समझा पाना बहुत मुश्किल होता है। यू समझ लीजिए इनका दुखों से हमेशा पाला पड़ता है। सुख इनके जीवन में होती नहीं है। कुछ लोगों का मूड दिन भर आॅफ होता है। उन्हें उठते-बैठते, चलने-फिरने चीखने और चिल्लाने की आदत होती है। किसी भी बात पर उनका मूड बदल जाएं कहां नहीं जा सकता।
कुछ वैज्ञानिक खुशी को मानसिक असंतुलन की एक दशा ‘मेजर अफैक्टिव डिसआॅर्डर’ (मैड) प्लेजंेट टाप की श्रेणी में मानते है। उनका मानना है कि खुशी अनचाहें नहीं पाया जा सकता है। खुशी कोई सामान्य अवस्था नहीं है। किसी व्यक्ति में खुशी के लक्षण जिस प्रकार से प्रकट होते है। वह मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक असंतुलन के लक्षण होते है।
वैज्ञानिकों के अनुसार खुशी पाने की और खुशी व्यक्त करने की दोनों ही स्थिति मस्तिष्क की असंतुलित मनोदशा है, जो पागलपन के करीब की दशा होती है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मनोविभाग के प्रमुख डाॅ. डगलास केन का कहना है, इंसान कितना खुश रहना चाहता है, कितना दुखी इसके लिए वह खुद जिम्मेदार है। क्योंकि खुश रहने के लिए खुद खुश रहने की आवश्यकता होती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि मुस्कराहट और हंसी आपके मूड को सुधार सकती है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक डाॅ. कैप्सर लेंसी का कहना है कि मुस्कराने और हंसने से हम नाक से ज्यादा सांस लेते है और अपने चेहरे की रक्त वाहनियों को नियंत्रित कर देते है। इससे हाइपोथैलेमस क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है। यह वह भाग है जहां से संवेदनाओं को नियंत्रण होता है।
सप्ताह के दिन ओर मूड के बीच भी संबंध होता है। इस बारे में फेलोरिडा यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक डाॅ. विस्टन डैक ने एक शोध किया। उन्होंने पाया कि लोग गुरूवार, शुक्रवार और शनिवार के दिन अधिक खुश रहते हंै। रविवार व सोमवार और मंगलवार के दिन कुछ कम खुश रहते हैं। बुधवार का दिन सामान्य दिन होता है।
इस बारे में उन्होंने शोध के लिए अलग-अलग कार्य करने वाले लोगों को शामिल किया। उन्होंने पाया भले ही काम का प्रभाव मूड पर असर डालता हो, पर विकली कलैंडर भी उनके मूड को सही और गड़बड़ रखता है। जो लोग बीक एंड के दिन छुट्टियों के लिए रखते हैं वे छुट्टियों की तैयारी के चक्कर में तनाव की स्थिति में आ जाते है।
मजे़दार बात यह है कि छुट्टी से लौटने के बाद खुश होने की बजाएं उनका मूड थोड़ा गड़बड़ लगने लगता है। डाॅ. डैंक कहते है, ऐसी स्थिति शरीर की थकान या हारमोनल गड़बड़ी की वज़ह से हो सकती है।
पहले यह माना जाता था कि शादी तनाव पैदा करती है। पर आस्टेªलिया मंे लिए गए एक शोध के अनुसार शादी से शरीर में हारमोनल परिवर्तन होता है, जो जीवन में खुशियां पैदा करता है।
खुशियां पाने के लिए शादी एक अच्छा उपाय बताया गया है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जो लोग निराशा में डूबे हुए होते है। जिनके अंदर उत्साह खत्म हो गई है। उन्हें शादी कर लेनी चाहिए। शादी के बाद मिलने वाली खुशी को लेकर कितने लोग कितने दिनों तक अधिक खुश रह सकते है इस बारे में वैज्ञानिकों ने शोध किया।
अमेरिका के मिशिगन यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक टीम ने विभिन्न आयु के 5000 जोड़ों पर अपना शोध किया। इस शोध में पाया ज्यादातर लोग अपनी शादी के पहले साल में सबसे अधिक खुश रहते हैं। शादी के चैथे और पांचवे साल में उनकी खुशी में गिरावट आती जाती है।
छठवें और आठवें साल में कुछ सुधार आता है। धीरे-धीरे यह पहले वाली स्थिति में आ जाती है। शादी की 25वीं वर्षगांठ मनाते-मनाते दोनों नवविवाहित जोड़ों की तरह खुश रहने लगते है। यह सिलसिला जीवन के अंतिम समय तक चलता रहता है।
जो लोग शादी के पहले साल में खुश नहीं रहते हैं उनका दाम्पत्य जीवन आगे चल कर भी नहीं बनता है। उनका आपसी बंधन जल्दी ही टूट जाता है। कुछ लोग भले ही इसे घसीट-घसीट कर कुछ सालों तक ले जाएं, पर इसे संभालना उनके लिए मुशिकल हो जाता है।
कार्नेगि मैलन यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक शोध के मुताबिक जो लोग अधिक खुश रहते हैं, उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक रहती है। इसलिए वे बीमार कम पड़ते है। वैज्ञानिक डाॅ. कोहेन का कहना है, ऊर्जावान व खुशमिजाज व्यक्ति के शरीर में रोग से लड़ने के हारमोन तेजी से तैयार होते है। जिससे उसे बीमारी होने की संभावना कम हो जाती है। उसका शरीर संक्रमण रोग की चपेट में भी कम आता है। खुश रहने वाले व्यक्तियों में आत्मविश्वास भी अधिक होता है। उनका आत्मविश्वास उन्हें कुछ भी करने के लिए तैयार रखता है।
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